कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 177-178 अर्थ सहित

पद: 177

अँखियाँ तो झांई परी, पंथ निहारि-निहारि।

जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि।

विरह कमंडल कर लिये वैरागी दो नैन ।

माँगै दरस मधूकरी छके रहैं दिन रैन ॥

सब रंग तात रबाब तान, विरह बजाबै नित्त

और न कोई सुनि सकै, कै साईं कै चित्त।।

भावार्थ :-

संत कबीर जी कहते हैं कि ईश्वर रूपी प्रियतम के वियोग में उनकी राह देखते देखते उनका पथ देखते देखते मेरी आंखों में झुर्रियां बढ़ गई हैं और उनका नाम जो कि राम है राम नाम पुकार पुकार कर मेरी जिह्वा में भी छाले पड़ गए हैं। और उनकी याद में उनके विरह में मैंने अपने दो नेत्रों को अपनी दो अंखियों को जैसे बिरह के कमंडल कर लिए हैं अर्थात मेरे जो नेत्र हैं जैसे कमंडल में जल रहता है उसी प्रकार आंसुओं से मेरे नेत्र सदा भरे रहते हैं और उन नेत्रों में संसार के प्रति वैराग्य है यह विरह वेदना का प्रभाव है। 

मेरे यह दोनों नेत्र अब मधुकरी अर्थात भिक्षा के रूप में मेरे प्रियतम अर्थात ईश्वर के दर्शन की वांछा करते हैं वही मांगते हैं क्योंकि उनके दर्शन के उपरांत यह मेरे नेत्र सदा उनके दर्शन के आनंद से छके रहेंगे मस्त रहेंगे मैं सुखी हो जाऊंगी। रबाब एक संगीत का वाद्य यंत्र होता है वह वीणा की तरह यंत्र होता है और उसमें जो है तार लगे और कसे हुए रहते हैं तो वह कहते हैं कि उन्हें जो विरह वेदना है वह इस शरीर रूपी  यंत्र को बजा रही है और इस विरह वेदना के द्वारा बजाए जाने वाले संगीत को या तो मैं सुन सकती हूं या तो मेरे प्रियतम सुन सकते हैं उसे सुनने में और अन्य कोई भी समर्थ नहीं है।

पद: 178

पछा पछीके कारनै, सब जग रहा भुलान।

निरपछ हैंकै हरि भजै, सोई सन्त सुजान।।1।।

अमृत केरी मोटरी, सिरसे धरी उतार।

जाहिं कहौ मै एक है, मोहि कहै दो-चार।।2।।

भावार्थ :-

 संत कबीरदास जी कहते हैं कि पक्ष और विपक्ष के कारण यह सब जग वास्तविकता को भूल गया है क्योंकि ईश्वर का जो भजन है ईश्वर की आराधना है साधना है वह निष्पक्ष होकर ही की जा सकती है और इस प्रकार भक्ति करने वाला जो संत है वह सुजान अर्थात ज्ञानवान हो जाता है। और वह कहते हैं कि जो सहस्रार में अमृत रस होता है अथवा तो सर्वोत्तम सर्वोच्च ब्रह्म ज्ञान होता है लोगों ने उसे अमृत अमृत के पात्र को अपने सर से नीचे उतार दिया है और इसी कारण उन्हें ज्ञान का पता नहीं है विज्ञान से वंचित है और इसीलिए जब मैं उन्हें कहता हूं कि ईश्वर एक है तो वह कहते हैं मुझे कहते हैं कि ईश्वर 2-4 हैं न अर्थात वे कहते हैं कि मैं अनुभव के द्वारा कहता हूं कि ईश्वर एक है और वह चूंकि उन्हें अनुभव नहीं है और इसी कारण वे कहते हैं कि ईश्वर एक नहीं बल्कि अनेक है।