कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 179 -180 अर्थ सहित

पद: 179

दुलहिनि तोहि पियके घर जाना।

काहे रोवो काहे गावो काहे करत वहाना।।

काहे पहिरयौ हरि हरि चुरियाँ पहिरयौ प्रेम कै बाना।

कहै कबीर सुनो भाई साधो, बिन पिया नहिं ठिकाना।।

भावार्थ:-

 कबीरदास जी कहते हैं की हे मनुष्य अथवा तो है प्राणियों तुम तो उस दुल्हन की तरह है जिसे 1 दिन अपने प्रियतम के घर विवाह के उपरांत चले ही जाना है और यह सत्य ही है कि जाना है तो फिर तुम उस जाने को लेकर किस बात के लिए रोते गाते कहते हो और क्यों  तरह-तरह के बहाना बनाते हो?  वह कहते हैं कि यह जो सुहागिनों का श्रृंगार है कि तुमने हरी हरी चूड़ियां पहनी है और यह प्रेम को प्रदर्शित करने वाला सुंदर रूप अपने वस्त्र आभूषणों के द्वारा धारण किया है। यह तुमने क्यों किया है यदि तुम्हें जाना नहीं है। वे कहते हैं की मेरे साधु भाइयों हे साधो! सुनो कि पिया के बिना कहीं भी हमारा ठिकाना नहीं है हमें अपने प्रियतम के साथ ही रहना है उसके घर ही रहना है और उसी के पास जाना है अतः जो हमें करना है  उसे खुशी से क्यों नहीं कर लेते।

पद: 180

सूतल रहलूँ मैं नींद भरि, पिया दिहलै जगाय।

चरन-कँवलके अंजन हो नैना ले लूँ लगाया।।

जासो निंदिया न आवे हो नहि तन अलसाय।

पियाके वचन प्रेम-सागर हो, चलूँ चली हो नहाय।।

जनम जनमके पापवा छिनमे डारब धोवाय।

यहि तनके जग दीप कियौ प्रीत बतिया लगाय।।

पाँच ततके तेल चुआए व्रह्म अगिनि जगाय।

प्रेम-पियाला पियाइके हो पिया पिया बौराय।।

बिरह अगिनि तन तलफै हो जिय कछु न सोहेय।।

ऊँच अटरिया चढ़ि बैठ लूँ हो जहँ काल न जाय।

कहै कबीर विचारिके हो जम देख डराया।।

भावार्थ :-

 कबीरदास जी कहते हैं कि मैं तो भरी गहरी नींद में सो रही थी अथवा सो रहा था किंतु मेरे प्रियतम ने आकर मुझे उस निद्रा से जगा दिया है। और इस प्रकार अब जाकर जब उनके दर्शन किए तो उनके चरण कमल की रज को मैंने अपनी आंखों से लगा लिया है अपने सिर पर धारण कर लिया है। अब कि जिस से नींद नहीं आती है और आलस्य नहीं आता है ऐसे मेरे प्रियतम के जो वचन है वह उस वचन रूपी समुद्र में  अब नहाने जा रही हूं कि जिससे न मुझे नींद आती है न मुझे आलस्य आता, दोनों भाग जाते हैं। अरे ऐसे उनके वचनों से मेरे जन्म जन्म के पाप मैं क्षण भर में अब धो डालूंगी। और इस प्रकार मैंने तन को दीपक बना लिया है और उसमें प्रेम की बत्ती लगा दी है और उसमें उस दीपक में पांच तत्व का जो है तेल मैंने भर दिया है और इस प्रकार मैंने अपने भीतर ही ब्रह्म की अग्नि को प्रज्वलित कर लिया है। और उसके उपरांत मैं प्रेम का प्याला पीकर और पिया पिया या प्रियतम प्रियतम के नाम से जैसे पागल हो गई हूं मुझे उनके सिवा और कुछ भी नहीं सूझ रहा है।  विरह की अग्नि से मेरा यह तन तड़प उठा है और मेरे मन में मेरे प्रियतम से मिलने के सिवा और कुछ भी विचार नहीं आता है। मैं ऊंची अटरिया पर उच्च स्थान पर चढ़कर बैठ गई हूं कि जहां पर काल का कोई प्रभाव नहीं है जहां काल पहुंच नहीं सकता। कबीर दास जी विचार करके कहते हैं कि इस स्थिति को देखकर यम को भी डर लगता है क्योंकि उनकी वहां तक पहुंच नहीं है वहां पर उनका कोई प्रभाव नहीं है। मैं अब अमर हो गई हूं। मैंने अविनाशी पद को प्राप्त कर लिया है।