कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 184 -185 अर्थ सहित

पद: 184

हमरी ननंद निगोडिन जागे।

कुमति लकुटिया निसि-दिन ब्यापै, सुमति देखि नहिं भावै।

निसि-दिन लेत नाम साहबको, रहत रहत रँग लागै।

निसिदिन खेलत रही सखियन-सँग, मोहिं बड़ो डर लागै।

मोरे साहबकी ऊँची अटरिया, चढ़तमे जियरा काँपै।

जो सुख चहै तो लज्जा त्यागै, पियसे हिलि-मिलि लागै।

घूँघट खोल अंग-भर भेंट, नैन-आरती साजै।

कहै कबीर सुनो भाई साधो, चतुर होय सो जानै।

निज प्रीतमकी आस नहीं है नाहक काजर पारै।     

भावार्थ :-

 संत कवि कबीर दास जी कहते हैं कि हमारी जो यह मोह रुपी निद्रा है यह बड़ी निगोड़ी है यह हमें जागने नहीं देती। हमारी कुमति रुपी लखोटिया अर्थात सहारे की लकड़ी हमें शरातदिन वहां पर व्यापे रहती है और हमें सुमति अर्थात ऐसी मति जो हमें ईश्वर की ओर ले जाए हमें अच्छी नहीं लगती।  हम प्रतिदिन हमारे स्वामी राम का नाम लेते हैं और धीरे-धीरे हमें रंग लगने लगता है।  हम निशदिन, प्रति दिन सखियों के साथ खेलती रहती है और मुझे बड़ा डर लगा रहता है क्योंकि मेरे साहिब अर्थात ईश्वर कि, प्रियतम की अटरिया अर्थात जहां वे रहते हैं वह बड़ी ऊंची है। बहुत ऊंचे स्थान पर है। और वहां पर चढ़ने के विचार से ही मेरा जिया या मेरा मन कांपने लगता है, डर के मारे थरथर कांपने लगता है। कबीरदास जी कहते हैं इसका उपाय यह है कि यदि आप अपने प्रियतम से मिलने का सुख और सौभाग्य चाहते हैं तो अपनी लज्जा का त्याग कर दो अपने प्रियतम से मिलकर उनके निकट रहो ।  अपने घूंघट के पट खोल दो शर्माओ मत और उनसे जी भर कर भेंट कर लो। गले लग जाओ और अपने नेत्रों से उन्हें प्रेम से देखो, जैसे इनकी आरती उतारते हैं इस प्रकार उन्हें प्रेम और सम्मान दो। कबीर दासजी कहते हैं कि हे साधो! हे मेरे भाई! सुनो! कि जो चतुर होता है वही इसे  जान पाता है। अपने निज प्रीतम अर्थात अपने स्वामी को ऐसे लोग या कहना चाहिए ऐसी ही सुंदर महिलाएं जिन्हें अपने प्रियतम से मिलने की आशा ही नहीं है इच्छा ही नहीं है तो वे किस हेतु से अपने नेत्रों में काजल लगाकर उन्हें अधिक सुंदर कर लेती हैं। उनके सौंदर्य को बढ़ा देती हैं। उनका क्या उपयोग जब वे अपने प्रियतम के पास जाना ही नहीं चाहती है। अर्थात यदि आप इस प्रकार श्रंगार में रत रहते हैं तो आपको अपने प्रियतम से अवश्य मिलना चाहिए और वह प्रियतम कबीर जी के लिए कबीर के निर्गुण राम हैं।

पद: 185

कैसे दिन कटिहै जतन बताये जइयो,

एहि पार गंगा ओहि पार जमुना,

बिचवाँ मडइया हमकाँ छावाये जइयो।

अँचरा फरिके कागज़ बनाइन,

अपनी सुरतिया हियरे लिखाये जइयो।

कहत कबीर सुनो भाई साधो,

बहियाँ पकरिके रहिया बताये जइयो।

भावार्थ :-

संत कबीर दास जी कहते हैं कि इस ग्रह व्यथा की बेला में मेरे दिन अथवा मेरा समय किस प्रकार से व्यतीत होगा कृपया वह उपाय भी बताते जाइए इस पर गंगा है और उसे पर यमुना है अर्थात योग की भाषा में पीड़ा और पिंगला है और बीच में सुषुम्ना है जिसमें प्राणों के प्रवेश करने से आत्मा अनुभूति की ओर सड़क की गति होती है तो कबीर दास जी कहते हैं कि इन दोनों के बीच में अर्थात सुकुमार में कैसे प्रवेश करना है मढैया हमको छपाई चाहिए मतलब हमारे लिए वहां पर एक मंडप बनाकर जाना जिसमें हम रह सके अर्थात सुसुमना में प्राणों का प्रवेश हो सके। अपने आंचल को फाड़कर या अपने आंचल के कपड़े को फाड़ कर मैंने उसका कागज बनाया है कृपया उसमें अपने बारे में अपना पता आदि लिखते चाहिए जिससे कि जब मुझे आवश्यकता हो तो मैं उसे पढ़कर अपनी इक्षा की प्यास को बुझाने कबीरदास जी कहते हैं कि यह साधु है भाइयों बाह पकड़ के राह बताते जाइए हे प्रभु मुझे मेरी बांह पकड़ कर मेरा सच्चा मार्ग मुझे बता कर जाइएगा।