कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 186 अर्थ सहित

पद: 186

कैसे जीवेगी विरहिनी पिया बिन, कीजै कौन उपाय।

दिवस न भूख रैन नहिं सुख है, जैसे कलिजुग जाम।

खेलत फाग छाँडि चलु सुंदर, तज चलु धन औ धाम।

बन-खंड जाय नाम लौ लावो, मिलि पियसे सुख पाय।

तलफत मीन बिना जल जैसे, दरसन लीजै धाय।

बिना आकार रूप नहीं रेखा, कौन मिलेगी आय।

आपन पुरुष समझिले सुंदरि, देखो तन निरताय।

सब्द सरुपी जिव-पिव बूझो, छड़ो भ्रामरी टेक।

कहैं कबीर और नहिं दूजा, जुग जुग हम-तुम एक।

भावार्थ :-

कैसे जीवेगी विरहिनी पिया बिन, कीजै कौन उपाय।

दिवस न भूख रैन नहिं सुख है, जैसे कलिजुग जाम।

संत कबीर दास जी कहते हैं की विरह वेदना के समय वे अपने आप को एक वीरान के समान देखते हुए कहते हैं की विरहीन किस प्रकार से अपने स्वामी प्रियतम या ईश्वर के बिना जी पाएगी ऐसा कौन सा उपाय वह करें की जिससे उसकी उसके प्रियतम से मिलन हो जाए।

दिवस में भूख दिवस ना भूख रे नहीं सुख है तो वह कहते हैं कि दिन में मुझे भूख नहीं लगती और रात में मुझे सुख की नींद नहीं आती जैसे कि ऐसा लगता है कि कलयुग का समय आ गया है और सब और अशांति फैल गई है। अर्थात यहां पर कलयुग को अशांति के पर्याय के रूप में चित्रित किया गया है।

खेलत फाग छाँडि चलु सुंदर, तज चलु धन औ धाम।

बन-खंड जाय नाम लौ लावो, मिलि पियसे सुख पाय।

होली  के मौसम में अर्थात होली के समय अपने प्रिय मित्रों के साथ होली खेलते हुए उन्हें या कहें सुंदर शब्द का प्रयोग किया गया है तो उसे भी छोड़ कर, और अपने घर को और धन संपत्ति को छोड़कर प्रियतम से मिलने के लिए वन में जाकर उनके नाम का जप करना चाहिए और उसमें तल्लीन हो जाना चाहिए जिससे कि प्रियतम से मिलना संभव हो जाए और उनसे मिलकर सुख प्राप्त हो जाए।

तलफत मीन बिना जल जैसे, दरसन लीजै धाय।

बिना आकार रूप नहीं रेखा, कौन मिलेगी आय।

कबीर जी कहते हैं कि जिस प्रकार मछली जल से बिछड़ कर जल के बिना तड़प जाती है विह्वल हो जाती है तो उसी तरह की तड़प मुझे है और मैं शीघ्र ही दर्शन करने के लिए दौड़ती हूं या आतुर रहती हूं। और जिसका कोई आकार नहीं है जिसका कोई रूप नहीं है जिसकी कोई रेखा नहीं है तो वह प्रियतम इस प्रकार आकर किस तरह से मिल पाएगा, यह बड़ी विडंबना है।

आपन पुरुष समझिले सुंदरि, देखो तन निरताय।

सब्द सरुपी जिव-पिव बूझो, छड़ो भ्रामरी टेक।

सुंदर समझकर उसे ही अपने तन को समर्पित कर दो अर्थात समर्पित भाव से उनकी आराधना करो। हे शब्द स्वरूप जीव या प्राणी या जीवात्मा अपने प्रियतम को बूझो अर्थात उसको जानो उसका अनुभव करो और यह छड़ो भ्रामरी टेक

मतलब अपना जो भ्रमण का निरंतर अभ्यास हो गया है और त्रिलोकी में जो घूम रहे हैं बार-बार उससे तुम बाहर आओ अब जन्म मरण के चक्कर में भ्रमण मत करो।

कहैं कबीर और नहिं दूजा, जुग जुग हम-तुम एक।

अंत में कर गर्वित बात कहते हुए कबीर दास जी कहते हैं कि प्रिय भाइयों बहनों साधु पुरुषों ईश्वर और तुम ईश्वर और जीव दो नहीं है बल्कि एक और अभिन्न है और यह अभिन्नता अभी नहीं हुई है बल्कि वह आगे कहते हैं जुग जुग हम तुम एक अर्थात युगों युगों से हम और तुम एक और अभिन्न हैं।