पद: 187
भींजै चुनरिया प्रेम-रस बूंदन।
आरत साज चली है सुहागिन पिय अपनेको ढूंढन।
काहेकी तोरी बनी है चुनरिया काहेके लगे चारों फूंदन।
पाँच तत्तकी बनी है चुनरिया नामके लागे फूंदन।
चढ़िगे महल खुल गई रे किवरिया दास कबीर लागे झूलन।।
भावार्थ :-
कबीर दास जी अपने सिद्ध अवस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं की यह चुनरिया प्रेम रस की बूंद से अब भीग रही है। और जो सुहागिन है जिसको अपना सुहाग प्राप्त हो गया है आरती की थाल सजाकर अपने प्रियतम को ढूंढने के लिए निकल पड़ी है। फिर कहते हैं कि यह चुनरिया यह जो तेरी चुनरिया है यह कौन से तत्वों की बनी हुई है और इसमें कौन से फूंदे फूल या फिर चित्र बने हुए हैं? उसका उत्तर भी वे देते हुए कहते हैं कि यह चुनरिया जिसमें नाम नाम के फुंदन लगे हुए हैं अथवा अपना शरीर, यह पांच तत्वों की बनी हुई चुनरिया है।
आगे कहते हैं कि वह जो आरती सजाकर सुहागन चली जा रही थी वह अब महल में चली गई है और महल के जो विशाल दरवाजे हैं उसके लिए खोल दिए गए हैं और वह जो सुहागन थी। जिसे कबीरदास जी अपने ओर से अपने लिए बोल रहे हैं वह अब अपने प्रियतम को पाकर सुखी हो गई है और अपने महल के सुंदर से झूले में सुख से झूलने लगी है।
पद: 188
मैं अपने साहिब संग चली।
हाथ में नरियल मुखमें बीड़ा, मोतियन माँग भरी।
लिल्ली घोड़ी जरद बछेड़ी, तापै चढ़ि के चली।
नदी किनारे सतगुरु भेंटे, तुरत जनम सुधरी।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, दोउ कुल तारि चली।
भावार्थ :-
जरद अर्थात पीले रंग की,
कबीरदास जी अपने को एक पतिव्रता स्त्री के रूप में देखते हुए अपनी साधना को व्यक्त करते हुए अपनी सिद्ध अवस्था का वर्णन करते हैं। और कहते हैं कि मैं अब अपने स्वामी अपने पति अपने ईश्वर के साथ जा रही हूं क्योंकि मुझे अनुभूति या ब्रह्म की अनुभूति रूपी वैवाहिक लाभ प्राप्त हो चुका है। और जैसे किसी मंगल कार्य को करने के लिए जाते हैं तो पूजा के लिए हाथ में नारियल होता है। और लोग शौक से मुख में पान चबाते रहते हैं और जो पतिव्रता स्त्री है वह अपनी मांग सुंदर ढंग से भर लेती है। इस प्रकार के मंगल प्रतीकों को साथ लेकर जिस प्रकार विवाह के समय दूल्हा दुल्हन घोड़ी पर बैठकर जाते हैं उसी प्रकार कबीरदास जी कहते हैं कि लिल्ली घोड़ी पर बैठ कर मैं अपने ससुराल चली।
आगे कहते हैं कि यह सब संभव कैसे हुआ कि जब मुझे वैराग्य प्राप्त हुआ और मैं संसार सागर रुपी नदी के किनारे जाकर इससे पर जाने के लिए बैठा, तो वहां पर मुझे सद्गुरु रूपी मल्लाह मिले, जो संसार सागर को पार कराने के लिए जाने जाते हैं। और उनके मिलते ही अर्थात सद्गुरु देवता के मिलते ही मेरे जन्म सुधर गए कई जन्म सुधर गए अर्थात बहुत लंबी जन्म मरण की श्रृंखला की झंझट से मैं मुक्त हो गया। और इस प्रकार कबीर दास जी कहते हैं कि जो ईश्वर का अनुभव कर लेता है उसके दोनों कुल तर जाते हैं माता का और पिता का, तो मैं भी अपने अनुभव रूपी विवाह के बाद अपने प्रियतम के घर पर चली और मैंने अपने माता-पिता के कुल को तार दिया है।