पद: 209
अपनपौ आप ही बिसरो।
जैसे सोनहा काँच मंदिरमें भरमत भूंकि मरो।
जो केहरि वपु निरखि कूप-जल प्रतिमा देखी परो।
ऐसे हि मदगज फाटिक शिलापर दसननि आनि अरो।
मरकर मुठी स्वाद ना बिसरै घर-घर नटत फिरो।
कह कबीर नलनीकै सुनवा तोहि कौन पकरो।।
शब्दार्थ :-
सोनहा = कुत्ता । काँच के मन्दिर में कुत्ता अपने ही प्रतिबिम्बों को देखकर भौंका करता है, वैसे ही जीव भी जगत में अपने ही अनेक प्रतिबिम्बों को अपने से भिन्न समझकर लड़ता फिरता है । केहरि वपु= सिंह कुएँ में अपनी परछाहीं देखकर कूद पड़ा था, ऐसी कहानी है। स्फटिक शिला में अपनी परछाही देख हाथी अपने दाँतों से लड़ने को अड़ जाय । ललनी के सुबना (सुग्गा) = जीव (जो माया के बन्धन में है) ।
भावार्थ :-
अपनपौ आप ही बिसरो।
जैसे सोनहा काँच मंदिरमें भरमत भूंकि मरो।
कबीर जी कबीर दास जी कहते हैं कि संसार में लोगों ने अपने को स्वयं ही विस्मृत कर दिया है लोग अपने आपको भूले बैठे हैं जैसे कोई कुत्ता कांच के मंदिर में जाता है और वहां उस कांच में अपनी छवि देखता है तो अपनी छवि को भौंक भौंक कर अपने प्राण त्याग देता है। वह उसे अपना शत्रु समझ लेता है।
जो केहरि वपु निरखि कूप-जल प्रतिमा देखी परो।
ऐसे हि मदगज फाटिक शिलापर दसननि आनि अरो।
वन का जो राजा कहलाता है ऐसा केसरी सिंह भी जब किसी कप के जाल में अपनी ही प्रतिमा देखा है तो वह उससे लड़ने के लिए उसे करने के लिए उसे शत्रु समझ कर उसे कुएं में कूद पड़ता है अर्थात वह है अज्ञान के कारण अपना ही शत्रु हो जाता है। इस प्रकार कोई विशाल हाथी गजराज स्फटिक की शिला पर जब अपनी ही छवि देखा है तो वह अपना शत्रु हो जाता है और अड जाता है।
मरकर मुठी स्वाद ना बिसरै घर-घर नटत फिरो।
कह कबीर नलनीकै सुनवा तोहि कौन पकरो।।
संभवतः यहां इसका अर्थ है कि यदि खाने पीने में अधिक आसक्ति होती है तो मरने के बाद भी उसका स्वाद प्राणी भूलता नहीं है और फिर अनेक घरों में अनेक प्रकार के जन्म लेता फिरता है अनेक रूप धारण करता है यहां पर नट का अर्थ है अभिनेता, अभिनय करने वाला और नटत याने अभिनय करता रहता है रूप धारण करता रहता है। कबीरदास जी कहते हैं कि इस प्रकार तरह तरह के जन्म लेने वाले प्राणी तुझे किसी ने पकड़ा नहीं है तुझसे यह कोई जबरन नहीं करवा रहा है बल्कि तेरे कर्म ही ऐसे हैं कि तुझे यह अवस्था प्राप्त हो रही है इसका कारण तू स्वयं है कोई और नहीं।