कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 194 अर्थ सहित

पद: 194

इहि बिधि रामसूं ल्यौ लाइ।।

चरन पाषै निरति करि, जिभ्या बिनाँ गुंण गाइ।

जहाँ स्वाँति बूँद न सीप साइर, सहजि मोती होइ।

उन मोतियन मै पोय, पवन अम्बर धोई

जहाँ धरनि बरषै गगन भीजै, चन्द-सूरज मेल।

दोई मिलि तहाँ जड़न लागे, करत हंसा केलि।

एक बिरष भीतरि नदी चाली, कनक कलस समाइ।

पंच सुवटा आइ बैठे, उदै  भई जनराइ।

जहाँ बिछ्य्यौ तहाँ लाग्यौ, गगन बैठो जाइ।

जन कबीर बटाऊवा, जिनि मारग लियौ चाइ।

शब्दार्थ :-

 चरण पाषैं निरति करि = चरणों के पंख पर नृत्य करो। जिभ्या बिना = जीभ से उच्चारण किए बिना, सहज भाव‌से। जहाँ … धोइ = स्वाति का बूंद, सीपी और सागर के बिना भी एक सहज मोती तुम्हारे पास हैं। इस सहज मोती के पानी से आकाश और हवा को धो दो। यह मोती विरह के अश्रु हैं। जहाँ ….केलि = एक ऐसा स्थान है जहाँ पृथ्वी ने पानी बरसता है और आकाश भीगता रहता है (मूलाधार के रस से सहस्रार सिक्त होता है), जहाँ सूर्य (नाभि के ऊपर का मूलाधार पद्म) और चन्द्र (ब्रह्म रंध्र) मिल गये होते हैं और हंस  केलि करता है। एक बनराइ= एक वृक्ष (शरीर है) जिसमें नदी ( कुण्डलिनी) बह रही है जो कतक- कलश (सहस्रार) में गिरी है और पाँच सुग्मे (प्राण) उस वृक्ष पर बैठे हैं और इनके कारण सारी बनराजि प्रसन्न हुई है।  जहाँ  ….चाइ = जहाँ से बिछुड़े थे वहीं जाकर लगो, शून्य में जाकर बैठो, कबीर बटोही ने रास्ता देख लिया है।

भावार्थ :-

कबीर दास जी कहते हैं कि इस प्रकार से मैंने अपने राम से प्रीति बढाई है कि उनके चरण कमल में समर्पित होकर और अपने जिह्वा के बिना ही उनके गुणों का गान किया है अर्थात भावनाओं से मैंने उन्हें समर्पण किया है।

वह कहते हैं की स्थिति ऐसी है कि वहां पर ना तो स्वाति की बूंद है नसीब है ना समुद्र है जहां पर सीट में स्वाति नक्षत्र में बूंद के गिरने से सहज ही मोती उत्पन्न हो जाते हैं आगे कहते हैं कि मैं ऐसा मोती पाया है कि उस पवन से अंबर को धोया है। अर्थात वायु से मैं आकाश को धो लिया है संभव होता है यह कथन योग के अनुसार प्राणायाम की प्रक्रियाओं के विषय में है, क्योंकि उन्होंने स्थान स्थान पर इडा पिंगला और सुषुम्ना की बात की है।  और इडा और पिंगला के मिलन स्थान पर द्वार खुलता है और इसीलिए वह कहते हैं कि जहां पर इड़ा और पिंगला दोनों मिल जाते हैं और सुषुम्ना का द्वार खुलता है तो वहां पर जो है हंस अर्थात जीवात्मा या प्राणी की चेतना अकेली करती है अर्थात वहां पर वह अत्यंत आनंद का अनुभव ग्रहण करती है।

  और अंतर में अर्थात चेतना के स्तर पर चेतना में एक ऐसी नदी बहती है जो विरस है जिसमें कोई रस नहीं है कोई द्रव नहीं बहता है ऐसी नदी बहती है। और जिसमें कनक अर्थात सोने का कलश समाय हुआ है अर्थात यह बातें योग मार्ग से होने वाले कुंडलिनी योग की साधनाओं से उत्पन्न होने वाली अनुभूतियों के विषय में निश्चय ही कही गई हैं। साधक सुषुम्ना  के द्वार से आगे बढ़ता है सहस्रार की और उसकी चेतना बढ़ती है तो उसे वहां पर इस प्रकार के अलौकिक दृश्य का अनुभव होता है।

वे कहते हैं कि 5 पक्षी आकर बैठ गए हैं और उससे यह जनसमुदाय उत्पन्न हुआ है यहां पर 5 पक्षियों का अर्थ है पंचभूत उनकी पंच रतन मात्राएं और इससे यह भौतिक संसार उत्पन्न हुआ है। आगे में समझाते हुए कहते हैं कि जिस से बिछड़ा था जिस से दूर हुआ था मैं फिर से वही आकर जुड़ गया हूं और मैं आकाश में जाकर बैठ गया हूं अर्थात ईश्वर का स्वरूप जो आकाश वत है उसका मैंने अनुभव कर लिया है। अंत में  बात कहते हुए कबीर दास जी कहते हैं कि सभी लोगों को यदि ईश्वर तक यात्रा करनी है तो उन्हें इस प्रकार के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।