कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 197 अर्थ सहित

पद: 197

गुरु बड़े भृंगी हमारे गुरु बड़े भृंगी।

कीटसों ले भृंग कीन्हा आपसो रंगी।

पाँव औरै पंख औरै और रँग रंगी।

जाति कूल ना लखै कोई सब भये भृंगी।

नदी-नाले मिले गंगे कहलावै गंगी।

दरियाव-दरिया जा सामने संग में संगी।

चलत मनसा अचल कीन्ही मन हुआ पंगी।

तत्त्मे निःतत्त दरसा संग में संगी।

बंधतें निर्बंध कीन्हा तोड़ सब तंगी।

कहै कबीर किया अगमगम नाम रँग रंगी।।    

भावार्थ :-

संदर्भ :- भारतीय अध्यात्म और संत परंपरा में एक कथा प्रचलित है की किसी कीड़े को जब कोई भंवरा डंक मारता है तो वह कीड़ा उस भंवरे का तीव्रता से चिंतन करता है और बहुत तड़पता है उसके शरीर पर थोड़ा पसीना निकलता है।

 इसी प्रकार जब उस कीड़े को भंवरा दूसरी बार डंक मारता है तो वह कीड़ा बहुत अधिक तड़पता है और उसके शरीर पर बहुत सारा पसीना निकलता है उसके शरीर पर जम जाता है और उसके चिंतन में वह भंवरा होता है उसके सिवा और कुछ भी नहीं होता।  इतना होने के बाद जब भंवरा उस कीड़े को फिर से तीसरी बार डंक मारता है तो ऐसा कहा जाता है ऐसा माना जाता है।

आध्यात्मिक क्षेत्र में बार-बार यह उदाहरण दिया जाता है कि वह कीड़ा भ्रमर हो जाता है। और उसके पंख फूट निकलते हैं और वह उड़ान भरने लगता है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक सिद्धांत यह है कि आप जैसा सोचते हैं वैसे ही आप हो जाते हैं इसका संस्कृत सूत्र है – ‘यस्य भावना यादृशी सिद्धि: भवति तादृशी।’ अर्थात जिसकी जैसी भावना रहती है उसको उसी प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है। इसी सिद्धांत का यहां पर कबीर दास जी ने प्रतिपादन किया है उदाहरण दिया है।

व्याख्या :-

गुरु बड़े भृंगी हमारे गुरु बड़े भृंगी।

कीटसों ले भृंग कीन्हा आपसो रंगी।

संत कबीर कहते हैं कि हमारे गुरु जो है वह बड़े भृंगी हैं अर्थात् वह बहुत बड़े भवरे हैं यहां पर दो बार अपने गुरु को बड़े भृंगी बड़े भृंगी कहा गया है अर्थात वे कहते हैं कि जैसे भ्रमर कीट को लेकर उसे भ्रमर  बना लेता है इस प्रकार मेरे गुरुदेवता ने मुझे अपना कर मुझे शरण देकर मुझे भी उसे गुरुत्व में उसे गुरु पद में उस परम पद में प्रतिष्ठित कर दिया है। और अपने जैसा ही बना लिया है इसलिए मेरे गुरु बड़े भृंगी हैं।

पाँव औरै पंख औरै और रँग रंगी।

जाति कूल ना लखै कोई सब भये भृंगी।

वह कहते हैं कि मेरे पर मेरे पंख और मेरे रंग आदि सब उन्हीं की तरह हो गए हैं और उन्होंने न मेरी जाति देखी न मेरा कुल देखा बस मुझे भी अपनी तरह उत्तम दिव्यता में परिवर्तित कर लिया है।

नदी-नाले मिले गंगे कहलावै गंगी।

दरियाव-दरिया जा सामने संग में संगी।

जिस प्रकार गंगा जी में छोटे-छोटे नदी नाले मिलकर गंगा ही पवित्र नदी गंगा ही कहलाने लगते हैं और उसी प्रकार वे भी गंगा के साथ जाकर सागर में मिल जाते हैं। यह उत्तम उदाहरण है कि संग का कैसा रंग लगता है और आप जिसका संग करते हैं परिणाम उसी तरह का आता है। तो हमने हमारे गुरुदेव का सानिध्य ग्रहण किया और हमारी भी यह उत्तम गति हुई कि हमने ईश्वर को प्राप्त किया उसका अनुभव कर लिया है।

चलत मनसा अचल कीन्ही मन हुआ पंगी।

तत्त्मे निःतत्त दरसा संग में संगी।

आगे वे कहते हैं कि हमारा जो चंचल मन था जो सदा ही गतिशील था इधर उधर भटकता था वह अब पंगु हो गया है अर्थात वह अब इस तरह से चंचलता प्रदर्शित नहीं करता जब हमें कुछ करना होता है तभी वह क्रियाशील होता है नहीं तो वह शांत हो गया है। हमारे गुरुदेवताने तत्व में निहित तत्व अथवा पंचतत्व रहित तत्व दिखाकर हमें उस संगी से मिला दिया है। जो सदा हमारे साथ था अर्थात् वह कण-कण व्यापी घट घट में आप ईश्वर जो पहले से ही हमारे साथ था किंतु अब हमने उसे पहचान लिया है उसे पा लिया है।

बंधतें निर्बंध कीन्हा तोड़ सब तंगी।

कहै कबीर किया अगमगम नाम रँग रंगी।।

वे आगे कहते हैं की बंधे हुए थे हम हमारे गुरुदेव ने हमें निर्बंध कर दिया है और सभी प्रकार के बंधन जो हमें दुर्बल बना रहे थे उन्हें हटा दिया है कबीरदास जी कहते हैं कि जो ईश्वर इंद्रियों और मन के द्वारा जाना जाने योग्य नहीं है अगम है हमारे गुरु ने हमें वहां तक पहुंचा दिया और गुरु नाम के या गुरु मंत्र के रंग में हमें अच्छी तरह से रंग दिया है। और अब हम ईश्वरमय  हो गए हैं।