कबीर ग्रंथावली (संपादक- हजारी प्रसाद  द्विवेदी) पद संख्या 200 अर्थ सहित

पद: 200

परबति परबति मैं फिरता, नैन गँवाए रोई।

सो बूटी पाऊँ नहीं, जातै जीवन होई।।1।।

नैन हमारे जलि गए, छिन छिन लोड़े तुज्झ।

नां तू मिलै न मैं सुखी, ऐसी बदन मुज्झ।।2।।

सुखिया सब संसार है, खाये अरु सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।।3।।

भावार्थ :-

परबति परबति मैं फिरता, नैन गँवाए रोई।

सो बूटी पाऊँ नहीं, जातै जीवन होई।।1।।

कबीर दास जी अपनी साधना अवस्था की स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मैं उसे ईश्वर को निर्गुण राम को मेरे प्रियतम को खोजते हुए पर्वत पर्वत फिरता रहा और उसकी याद में रोता रहा और मेरे जो नेत्र है मेरी जो दृष्टि है वह बहुत कमजोर हो गई रो-रो कर किंतु मैंने वह उपाय वह औषधि वह हल प्राप्त नहीं किया की जिससे मुझे वह जीवन प्राप्त हो सके जो वास्तविक जीवन है जो ईश्वर की अनुभूति रूप जीवन है।

नैन हमारे जलि गए, छिन छिन लोड़े तुज्झ।

नां तू मिलै न मैं सुखी, ऐसी बदन मुज्झ।।2।।

वे कहते हैं की तेरी याद करते करते और तुझे देखने की इच्छा करते करते हमारे नैन जो है क्षण क्षण तुझे याद करते हैं और उन्हें विश्राम न होने के कारण वह जैसे जल से गए हैं अर्थात उनकी हालत ऐसी हो गई है कि जैसे वे किसी काम के ही ना रह गए हो।  इसके बाद भी न तो हे राम! तुम मुझे मिले हो और न मैं सुख प्राप्त कर सका हूं। मेरे शरीर की ऐसी बुरी दशा हो गई है।

सुखिया सब संसार है, खाये अरु सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।।3।।

वह अपनी दुर्दशा या विरह दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि यह सारा संसार सुखी है वह भरपेट समय पर खाना खाते हैं और समय पर सो जाते हैं मस्त रहते हैं किंतु एक यह है दास कबीर है जो दुखी है क्योंकि वह तेरे विरह में जागता रहता है और रोता रहता है।