एवरीथिंग इस फेयर इन लव एंड वार

(Everything is fair in love and war)

(मनोज कुमार धुर्वे)

एवरीथिंग इस फेयर इन लव एंड वार (Everything is fair in love and war)।

यह संवाद, यह सूत्र आजकल जनसाधारण की भाषा में एक आम शब्द हो गया है किंतु इसका आधार क्या है ? इसका सांस्कृतिक आधार क्या है? यह कहां से उत्पन्न हुआ है इसके प्रभाव क्या हैं? यह कितना उचित है अथवा कितना अनुचित है। सामान्यतः फिल्मों में भी इस तरह के गाने आंख मूंद कर बना दिए जाते हैं कि 

तू हां कर, 

या न कर, 

तू है मेरी किरण,

तू है मेरी किरण।।

 अर्थात तुझे अच्छा लगे या बुरा लगे, तेरी मर्जी हो या न हो, तू मुझे चाहे या न चाहे। मैं तुझे अच्छा लगूं या न लगूं किंतु हे किरण! तुझे मैं जैसा कहूं वैसा करना ही पड़ेगा। मुझसे विवाह करना ही पड़ेगा।

 यह जो संस्कृति है, इसका मूल आधार क्या है ? क्या यह भारत का मूलभूत स्वभाव है? जहां पर ऐसे कोई उदाहरण मिलते हो कि सैद्धांतिक रूप से जिसे यहां स्वीकार्यता मिली हुई हो, कि किसी को किसी भी तरह से मार डालना जायज है। एवरीथिंग इस फेयर इन वार। कि यह युद्ध की नीति है। युद्ध की नीति, शब्द ही भारत का अपना मूलभूत है। यह परंपरा जो कहती है कि एवरीथिंग इस फेयर इन लव एंड वार(Everything is fair in love and war), तो हम दोनों को एक-एक करके देखेंगे।

पहले हम प्यार को लेते हैं।  तो भारत में जब जोर जबरन, जबरदस्ती से किसी को किडनैप करके अगवा करके या किसी भी प्रकार से बलपूर्वक यदि कोई पुरुष किसी स्त्री से विवाह करता है तो इसे राक्षसी विवाह कहा जाता है। और यह अच्छा नहीं माना जाता, यह निंदनीय है। यह पाप कर्म की तरह है, और इस तरह का विवाह कितना निंदनीय है, यह सीता जी को रावण के द्वारा अपहरण कर लिए जाने के बाद राजा राम के द्वारा श्रीलंका का जैसे विनाश ही कर दिया गया था। क्योंकि यह इतना जघन्य अपराध है कि किसी स्त्री को उसकी अपनी मर्जी के बिना उसके साथ इस प्रकार के संबंध स्थापित करना। लव शब्द पाश्चात्य अथवा तो कम से कम फिल्मों की दुनिया में सामान्यतः अफेयर या वैवाहिक संबंधों के लिए ही प्रयुक्त किया जाता है। 

ऐसे बहुत कम अवसर होते हैं, जहां प्यार का अर्थ सामान्य, आम लोगों के बीच सगे संबंधियों के बीच मित्रों के बीच होने वाले प्रेम के रूप में लिया जाता हो। ईश्वर और भक्त के रूप में होने वाले प्रेम के रूप में लिया जाता हो। यह बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण है। और इस दुर्भाग्य के जनक कौन हैं? यह हमें अवश्य देखना चाहिए,जानना चाहिए। इस दुर्भाग्य के जनक, इसी विचारधारा को यदि हम देखें तो हमें पता चलता है कि यह कितनी दुखद है, कितनी दोषपूर्ण है, कि कोई व्यक्ति आपका पिता समान हो, काका चाचा मामा लगता हो, कोई चचेरा ममेरा फुफेरा भाई हो, बहन हो, कोई इस तरह का संबंध हो जिससे वैवाहिक संबंध बनाना आपके लिए निंदनीय हो सकता है। 

तो भारतीय परंपरा कहती है कि नहीं यह उचित नहीं है। इस प्रकार के वैवाहिक संबंध बनाने से हमारी वंश परंपरा दोषपूर्ण हो जाएगी। किंतु यह सिद्धांत कहता है कि एवरीथिंग इस फेयर, यदि आप इस तरह का प्यार करते हैं तो उसमें सब कुछ जायज है। यह परंपरा पश्चिम की ओर से आने वाली विचारधारा से हमें प्राप्त हुई है। इसके अवशेष अथवा इसके आधारभूत मूल्य वर्तमान में भी अमेरिका आदि में देखे जा सकते हैं। वहांँ की सेना का यह सिद्धांँत है कि जब युद्ध का समय आता है, तो सबसे पहले हम  मानवता को हथकड़ी लगाते हैं। अर्थात् मानवीय मूल्यों को, भावनात्मक संवेदना को, हित और अहित की बातों को, हम सबसे पहले त्याग देते हैं। 

उन्हें यह नहीं देखना होता कि यह कार्य उचित है कि अनुचित। जब युद्ध होता है, तो उन्हें केवल मारना होता है, बिना बिचारे,  उन्हें यह नहीं देखना होता कि वे किसी को मृत्यु के, मौत के घाट उतार रहे हैं तो क्या  उसने ऐसे अपराध किए हैं कि उसे मृत्यु के घाट या  मौत के घाट उतारा जाए। यह उनका काम नहीं होता उनका कार्य केवल यह होता है कि उसको हमें नष्ट करना है। उसका हमें नाश करना है। क्योंकि उनकी विचारधारा रहती है कि एवरीथिंग इस फेयर इन लव एंड वार(Everything is fair in love and war)।  

इस प्रकार की ऐतिहासिक घटनाएंँ भी भारतीय इतिहास में देखी जा सकती हैं,कि जबसे पश्चिम के लोगों का भारत में आक्रमणकारियों के रूप में आगमन हुआ है, इस पर प्रकाश सरलता से डाला जा सकता है। प्रथम घटना देखी जा सकती है, जब पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को युद्ध में 16 बार परास्त कर दिया था। और उसके भागने पर उसको छोड़ दिया था। क्योंकि हमारी युद्ध नीति यह कहती है कि यदि कोई अपने प्राण बचाकर भाग रहा हो तो उसकी पीठ पर कभी भी वार नहीं किया जा सकता। कोई व्यक्ति अपने समूह से अकेला छूट गया हो तो उस पर वार नहीं किया जाना चाहिए। उसकी रक्षा की जानी चाहिए, क्योंकि वह अभी अपने समूह से बिछुड़कर ऐसे ही अकेला हो गया है। 

ऐसे निराश्रित पर किस प्रकार से वार किया जाए। इसी प्रकार ऐसी महिलाएं ऐसे बच्चे और ऐसे लोग जिनमें ब्राह्मण भी शामिल हैं जो हिंसक गतिविधियों में शामिल नहीं होते, जो युद्ध की गतिविधियों में शामिल नहीं होते दूर रहते हैं, तो उन पर युद्ध को थोंपा नहीं जाना चाहिए। अकारण उन पर आक्रमण नहीं किए जाने चाहिए। किंतु यह कोई लकीर के फकीर जैसी बात नहीं है कि यह अटल सिद्धांत हो गया। यदि कोई महिला सूर्पनखा जैसी हो कोई महिला ताड़का जैसे गुणधर्म वाली हो वैसे स्वभाव वाली हो, तो उसका वध किया जाना अधर्म नहीं है बल्कि वह धर्म और नीति के अनुकूल है। सूर्पनखा की नाक काटना कोई बुरी बात नहीं है। उसी प्रकार द्रोणाचार्य जब युद्ध के मैदान में खड़े हैं भले ही ब्राह्मण हो किंतु उन पर उनके विरुद्ध शस्त्र उठाना अर्जुन के लिए दोषपूर्ण नहीं है। या उस किसी के लिए भी नहीं है जिसके विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते हैं उसी प्रकार भीष्म पितामह के अपने ही गुरु भगवान परशुराम जी के सम्मुख युद्ध की घोषणा करना अथवा तो उनके युद्ध को स्वीकार कर लेना कोई भी दोषपूर्ण कार्य नहीं माना जाता, क्योंकि यह धर्म के अनुकूल है।

 वह जन्म से भले ब्राह्मण हों किंतु कर्म से वह क्षत्रिय धर्म का निर्वाह कर रहे हैं इसलिए उन्हें क्षत्रिय ही समझा जाता है। इन सब बातों से यह भी प्रकट होता है कि भारतीय वर्ण व्यवस्था जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इस तरह की चार श्रेणियां बनाई गई हैं, यह स्वभाव जन्य है।

 यह जन्म के आधार पर लकीर के फकीर की तरह नहीं है और यह स्थाई नहीं है। इस प्रकार के अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं जहां पर जो नीची जातियों के लोग ज्ञान को प्राप्त हुए अथवा तो राक्षसी समुदाय से दैत्यों के समुदाय से कोई प्रहलाद जैसे भक्त हुए तो वे आज भी सम्मानीय हैं पूजनीय हैं। उसी प्रकार भील जाति में उत्पन्न होने वाली शबरी माता शबरी के नाम से आज भी धर्म शास्त्रों में सम्मानित होती हैं।

 उसी प्रकार नाग पंचमी के दिन नाग को देवता मानकर उसकी पूजा की जाती है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु के पास जिनकी शैया पर वे विराजित हैं उनके बारे में एक कथा आती है।  एक बार शेष जी अपने समूह के लोगों को देखते रहे कि यह सर्प जाति के लोग किसी को भी अकारण ही कष्ट पहुंचा देते हैं चाहे उसका हित हो अथवा तो अहित हो यह नहीं, यह नहीं देखते कि यह ठीक रहेगा कि नहीं रहेगा उचित होगा कि नहीं होगा। यह शास्त्रों के की मर्यादा के अनुकूल है अथवा प्रतिकूल बल्कि यह द्वेषपूर्ण स्वभाव के होते हैं और अकारण ही लोगों को दुख पहुंचाते रहते हैं। वे दयालु स्वभाव के शेष जी वहां से निकलकर और दूर चले गए और तपस्या में तल्लीन हो गए। क्योंकि उन्हें लगता था कि यह ठीक नहीं है। तो इस प्रकार जब उन्हें बहुत काल बीत गया तब भगवान विष्णु ने उनसे कहा कि आप मेरे धाम को चलिए और मेरे निकट निवास कीजिए। तो इस प्रकार की कथा है।और तब वहां से शेष जी उनके पास चले गए।

 तो यहां पर यह भी देखा जाता है कि वह किसी दूसरी योनियों में होते हुए भी इस कार्य के अयोग्य नहीं हैं क्योंकि उनका स्वभाव साधु स्वभाव है। उनका स्वभाव ब्राह्मण स्वभाव है तो यह नहीं देखा जाता कि उन्होंने जन्म कहां लिया है। उसी प्रकार प्रह्लाद ने भी दैत्यों के कुल में जन्म लिया था किंतु आज भी भक्त प्रहलाद के नाम से संसार भर में प्रसिद्ध है। इसके विपरीत रावण ने ऋषि कुल में जन्म लिया था किंतु कभी-कभी बहुत सारे स्थानों पर रावण को राक्षस राज रावण कहा जाता है। क्योंकि वह राक्षसों का राजा था उसकी प्रजा राक्षसों के स्वामी के नाम से उसे जानती थी और रामायण में भी यही वृतांत आता है। कि राक्षस जाति का संघार हो जाएगा अर्थात वह राक्षस माना जाता है। इसी प्रकार अब बात यह आती है कि इस प्रकार की घटनाओं को जन्म देने वाली यह विचार की श्रृंखला कहां से उत्पन्न हुई यह विचारधारा भारतीय मूल की नहीं है इस विचारधारा का मूल स्रोत पाश्चात्य परंपरा है। संसार में ऐसी दो ही परंपराएं विद्यमान है, पहली परंपरा पूर्व की परंपरा और दूसरी परंपरा पाश्चात्य परंपरा। पहली परंपरा में भारतीय परंपरा आती है और दूसरी परंपरा में यहूदियों के रूप में वह मूल परंपरा जन्म लेती है और फिर यहूदियों से उत्पन्न होने वाले क्रिश्चियन में वह व्याप्त होती है क्रिश्चियन, क्रिश्चियनिटी का जन्म यहूदियों से ही हुआ है। जिस प्रकार भारतीय परंपरा में ही भगवान बुद्ध प्रकट हुए और उनकी परंपरा बुद्ध के नाम से जानी गई इस प्रकार जैनों की भी परंपरा है। इसी प्रकार पश्चिम में सर्वप्रथम यहूदियों की परंपरा है। उसके बाद क्रिश्चियनिटी या ईसाईयत का जन्म हुआ है। और उसके पश्चात इस परंपरा में इस्लाम का उदय हुआ है। उन सभी के मूलभूत पैगंबर जिनका नाम इब्राहिम है वह इसी मूलभूत परंपरा के अंग माने जाते हैं। तो यह यह परंपरा है। जिसने यह सूत्र दिया है कि एवरीथिंग इस फेयर इन लव एंड वार(Everything is fair in love and war)। 

इस परंपरा में इस सूत्र के मूल, किसी धर्म ग्रंथ से है या किसी नैतिक शिक्षा से या कहां हैं यह तो बताना कठिन कार्य है किंतु इसका मूल स्रोत पाश्चात्य ही है। क्योंकि भारतीय परंपरा में न तो यह सूत्र प्राप्त होता है न हीं इन सूत्रों को कोई मान्यता प्राप्त हुई है। और न ही इसके अन्य स्थानों पर कोई उदाहरण ही प्राप्त होते हैं।

भारतीय परंपरा में तो स्त्री और पुरुष दोनों की स्वीकार्यता के उपरांत ही विवाह के बंधन अथवा तो विवाह का कार्यक्रम जो है सफल होता है। यहां पर नैतिक और धार्मिक दृष्टि से कोई भी शास्त्र ऐसा नहीं मिलेगा जो यह कहता हो कि जबरन किसी को भी पकड़ कर ले आओ और उससे विवाह रचा लो।  यह परंपरा भारतीय परंपरा नहीं है। 

उसी प्रकार युद्ध की परंपरा जिसमें नीति रहित हिंसा हो वह भारतीय परंपरा नहीं है। पश्चिम की दृष्टि से पश्चिम के क्षेत्र से होने वाले, भारत पर होने वाले आक्रमणों में जब यह लोग आते थे तो यहां पर इन्होंने किसी भी समय आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया। चाहे सब सोते हुए लोगों को मारना हो, चाहे बच्चों और स्त्रियों पर हाथ उठाना हो, चाहे उन्हें ले जाकर बाजारों में बेच देना हो, यह हाथ उठाने की बात ही छोड़िए यह तो यहां पर जिन लोगों की युद्ध में मृत्यु हो जाती थी या जिनकी रक्षा लोग नहीं कर पाते थे उन स्त्रियों को और बच्चों को बच्चियों को बलात ले जाकर उनके साथ तरह-तरह के अपराधिक कृत्य  करके उन्हें बाजारों में बेच दिया करते थे। यह परंपरा भारत में इसके पूर्व दिखाई नहीं देती। हां यहां दास परंपरा थी किंतु दास का अर्थ यह तो नहीं कि आप उसके सभी अधिकारों को छीन ही लो। उसे उसका जीवन का अधिकार न हो इस तरह की परंपराएं यहां पर सैद्धांतिक रूप में कम से कम दिखाई नहीं देती। भारत में होने वाले युद्ध की परंपरा इस प्रकार से दिखाई देती है कि जब यहां पर दो राजाओं में युद्ध होता था तो वह एक स्थान नियत कर लेते थे और वहां पर दोनों सी इकट्ठी हो जाती थी। और वहां पर वह युद्ध करते थे, जो विजेता होता था, उसका राज्याभिषेक कर दिया जाता था। और वह राजा हो जाता था। जो सामान्य प्रजानन हैं, समाज के लोग हैं जो खेती करने वाले लोग हैं गांव के लोग हैं सामान्य व्यापारी वर्ग हैं उन तक इस युद्ध की आंच  नहीं पहुंच पाती थी। उन्हें ठीक से पता भी नहीं होता था कि अब राजा कौन और कैसे बन गया है। क्योंकि हमारी परंपरा रहती है कि युद्ध की भी एक नीति होती है महाभारत के युद्ध में जिन्होंने युद्ध के नियमों का पालन नहीं किया उनकी हमेशा ही निंदा की जाती है, कि उन्होंने यह ठीक नहीं किया। उन्होंने युद्ध के नियमों को तोड़ा, किंतु उन्होंने तो किसी विशेष अवस्था में ही युद्ध के नियमों को तोड़ा किंतु यह जो आक्रमणकारी आए, पश्चिम की ओर से जो भारतीय परंपरा पर भारतीय संस्कृति पर भारतीय धर्म पर आक्रमण हुए उनके लिए तो युद्ध का या नीति का कोई नियम ही नहीं था।

 उन्हें तो बस किसी भी प्रकार से लोगों के जीवन को नष्ट करना था उनकी संस्कृति को बर्बाद करना था, मिटाना था, उसके अवशेषों को भंग करना था और उसके पश्चात उनकी संपत्ति को लूटकर अपने साथ लेकर जाना था उनके बच्चों को किसी वस्तु की तरह उठाकर बेच देना था उनकी सुंदर पुत्री स्त्रियों बहनों के साथ इन्हें कुकृत्य करना था। और इसी कार्य में अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करना था। यह भारतीय परंपरा नहीं है, अतः सार रूप में यह कह पाना की एवरीथिंग इस फेयर इन लव एंड वार(Everything is fair in love and war) बिल्कुल ठीक नहीं है। यह बिल्कुल भी उचित नहीं है यह अत्यंत निंदनीय कृत्य है।

पंचतंत्र आदि किसी ग्रंथ में, नैतिक शिक्षा के लिए एक छोटा सा वृतांत आता है। कि किसी घने जंगल के रास्ते में किसी स्थान पर कोई व्यक्ति अपने सर पर गठरी बांध कर चला जा रहा था। उसने रास्ते की एक ओर देखा कि एक बड़ा सा सर्प किसी भारी पत्थर के नीचे दबा जा रहा है। किसी कारण वश पत्थर उस पर लुढ़क गया है, तब उस व्यक्ति को दया आ गई। वह दयालु प्रकृति का था और उसने सोचा कि किसी के प्राणों की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है और उसने अपने सर का भार उतार कर एक ओर रख दिया। और वह उस सर्प की सहायता के लिए उसके पास गया और उसने उस पत्थर को हटा दिया। जिससे उस सर्प की प्राण रक्षा हुई। तब वह सर्प अपना फोन उठाकर उसके सामने खड़ा हो गया कि यह तुमने बहुत अच्छा किया कि मेरे प्राणों की रक्षा की किंतु मैं थक गया था और मुझे अब भूख भी लग गई है। इसलिए मैं तुम्हारे शरीर का रक्त पान करूंगा। उस व्यक्ति ने उससे कहा उससे निवेदन किया कि नहीं अच्छे लोग ऐसा नहीं करते, और तरह-तरह की बातें हुई। किंतु उसने न माना।

 इतने में बाजू से ही कोई सियार इन सब बातों को सुन रहा था, वह पास आया और उसने कहा कि आप लोग क्या कर रहे हैं, क्यों झगड़ रहे हैं। क्या बात है ? तो उस व्यक्ति ने सारी बातें बताई। सर्प ने भी उसमें हां में हां मिला दी कि हां ऐसा हुआ था। लेकिन उस चतुर सियार ने कहा मैं नहीं मानता। इतना भारी पत्थर ऐसा दुबला पतला कमजोर व्यक्ति कैसे हटा सकता है? तब सर्प ने कहा नहीं इसीने हटाया है? तब सियार ने कहा कि ‘नहीं आप मुझे करके दिखाओ। तब मैं मान लूंगा। और तभी ठीक से न्याय कर पाऊंगा। तब सर्प उसी स्थान पर चला गया और उस व्यक्ति ने उस पत्थर को उस पर उसी तरह से रख दिया। तब उस सियार ने कहा, कि खबरदार, अब इस पत्थर को ऐसा ही रहने दो, क्योंकि जो व्यक्ति या जो प्राणी अपने ही प्राण रक्षा करने वालों के प्रति कृतज्ञ नहीं रहता कृतघ्न हो जाता है, ऐसे लोगों की प्राण रक्षा नहीं करनी चाहिए। इनके प्राण रक्षा करना अनैतिक है अधर्म है। अब तुम अपना सामान अपने सर पर रखो और यहां से चले जाओ तब वह व्यक्ति वहां से अपनी जान बचा कर चला जाता है। इससे यह शिक्षा मिलती है कि कोई भी नियम पत्थर पर लकीर की तरह अथवा तो लकीर का फकीर जैसा नहीं होता है। उसकी अपनी मर्यादाएं होती हैं। उसका स्थान, उसका समय,  उसकी अपनी परिस्थिति होती है, अपना देश काल होता है तब ही वह लागू होता है।

इसलिए यह सिद्धांत जिसका नाम है एवरीथिंग इस फेयर इन लव एंड वार(Everything is fair in love and war)  प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज है न केवल गलत है बल्कि अत्यंत निंदनीय भी है अधर्म है अनीति है अनुचित है।

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