इन दोऊ संसार भुलावा,

कबीर ग्रंथावली- डॉ. श्यामसुंदरदास (रमैणी )

।।निरंतर।।

इन दोऊ संसार भुलावा,

इन दोऊ संसार भुलावा, लागें ग्याँन गँवावा ।। 

इनकौ मरम पै सोई बिचारी, सदा अनंद लै लीन मुरारी ।। 

ग्याँन दिष्टि निज पेखे जोई, इनका चरित जाँनै पै सोई ।। 

ज्यूँ रजनी रज देखत अँधियारी, इसे भुवंगम बिन उजियारी ।।

 तारे अगिनत गुनहि अपारा, तउ कछू नहीं होत अधारा ।। 

झूठ देखि जीव अधिक डराई, बिना भुवंगम इसी दुनियाँई ।। 

झूठै झूठ लागि रही आसा, जेठ मास जैसे कुरंग पियासा ।। 

त्रिषावंत दह दिसि फिरि आवै, झूठे लागा नीर न पावै ।। 

इक त्रिषावंत अरु जाइ जराई, झूठी आस लागि मरि जाई ।। 

नींझर नीर जाँनि परहरिया, करम के बाँधे लालच करिया।। 

कहै मोर कछू आहि न वाही, धरम करम दोऊ मति गवाई।। 

धरम करम दोऊ मति परहरिया, झूठे नाँऊ, साच ले धरिया।। 

रजनी गत भई रबि परकासा, धरम करम घूँ केर बिनासा ।। 

रबि प्रकास तारे गुन खीनाँ, आचार ब्यौंहार सब भये मलीनाँ ।। 

विष के दाधे विष नहीं भावै, जरत जरत सुख सागर पावै ।।

व्याख्या :- 

इन दोऊ संसार भुलावा, लागें ग्याँन गँवावा ।। 

इनकौ मरम पै सोई बिचारी, सदा अनंद लै लीन मुरारी ।। 

पूर्व की पंक्तियों को ध्यान में रखते हुए कबीर दास जी कहते हैं कि भ्रम और भ्रम से उत्पन्न कर्म इन दोनों ने हीं संसार को भुलावे में डाल दिया है और इसमें लगकर लोगों ने ज्ञान को गंवा दिया है अर्थात् वे अपने स्वरूप को भूल गए हैं। इनके मर्म पर वही विचार कर सकता है जो उसे मुरारी अर्थात ईश्वर में उसके आनंद में सदा लीन रहता है।

ग्याँन दिष्टि निज पेखे जोई, इनका चरित जाँनै पै सोई ।। 

ज्यूँ रजनी रज देखत अँधियारी, डसे भुवंगम बिन उजियारी ।।

जो ज्ञान की दृष्टि से इन्हें देखा है वही उनके चरित्र को जान पाता है। जिस प्रकार रात्रि में केवल रात्रि के स्वभाव रूप सर्वत्र अंधकार ही दिखाई देता है और रात्रि काल में बिना प्रकाश के सर्पदंश का भय बना रहता है।इस प्रकार अज्ञान के अंधकार में वासना के सर्प का सदा मय बना रहता है।

तारे अगिनत गुनहि अपारा, तउ कछू नहीं होत अधारा ।। 

झूठ देखि जीव अधिक डराई, बिना भुवंगम इसी दुनियाँई ।। 

अंधकार भारी रात्रि में यद्यपि आकाश में अनगिनत अर्थात् असंख्य तारे दिखाई देते हैं उनके अपार गुण भी हैं। किंतु उनसे कोई उपयोगी प्रकाश प्राप्त नहीं होता अर्थात् वे प्रकाश का आधार नहीं बन पाते। और इस प्रकार माया रुपी अंधकार में जिस प्रकार रात्रि में रस्सी या इस प्रकार की कोई संरचना देखकर व्यक्ति सर्प के भय से भयभीत हो जाता है। इस प्रकार कबीर दास जी कहते हैं कि इस संसार में माया रुपी सर्प है ही नहीं। माया का तो अर्थ ही है की जो विद्यमान नहीं है फिर भी भाषित होती है वही माया है। फिर भी यह जीव झूठ को देखकर बहुत अधिक डर जाता है। अर्थात् यह माया मिथ्या कल्पना है यह सत्य नहीं है।

झूठै झूठ लागि रही आसा, जेठ मास जैसे कुरंग पियासा ।। 

त्रिषावंत दह दिसि फिरि आवै, झूठे लागा नीर न पावै ।। 

कबीर दास जी कहते हैं कि इस झूठे संसार में इसे प्राप्त करने की झूठी आशा लेकर मनुष्य दौड़ता रहता है। किंतु उसे कुछ भी हाथ नहीं लगता क्योंकि वह होता ही नहीं। जिस प्रकार मृग मरुस्थल में, मरुस्थल में जहां रेत के कणों में सूर्य का प्रकाश पडने से इस तरह की भ्रांति उत्पन्न हो जाती है कि वहां पर जल से भरा हुआ कोई सरोवर है किंतु निकट जाने पर वह सरोवर प्राप्त नहीं होता क्योंकि वह है ही नहीं। इसी प्रकार इस संसार में यह जीव प्यासा होकर प्यास से जलता हुआ दसों दिशाओं में घूमता रहता है, और इस संसार में सुख की आशा लगाकर झूठी आशा से ग्रस्त होकर इधर-उधर भटकता है किंतु उसकी आशा पूरी नहीं होती अर्थात् वह जल को प्राप्त नहीं करता। क्योंकि इस संसार में जल है ही नहीं।

इक त्रिषावंत अरु जाइ जराई, झूठी आस लागि मरि जाई ।। 

नींझर नीर जाँनि परहरिया, करम के बाँधे लालच करिया।। 

कहै मोर कछू आहि न वाही, धरम करम दोऊ मति गवाई।। 

धरम करम दोऊ मति परहरिया, झूठे नाँऊ, साच ले धरिया।। 

एक प्यास से जलता हुआ प्राणी झूठी आस लगाकर अपना जीवन गवा देता है वह जिसे जल का स्रोत समझकर जल लेने जाता है वहां पर उसे जल नहीं मिलता और वह कर्म से बंधा हुआ लालच करता रहता है। वह जिसे मेरा कहता है वह उसका है ही नहीं वह व्यर्थ के झूठे धर्म और कर्म में अपनी मति को खो देता है क्योंकि यह संसार मिथ्या है। धर्म और कर्म दोनों की मति को गंँवा देता है। अर्थात् वह इन्हें ठीक तरह से नहीं कर पाता। इस प्रकार धर्म के मार्ग पर चलने की और कर्मों को कम बंधन के काटने वाले कम करने की माटी का जब त्याग हो जाता है अथवा में छूट जाए तब फिर यह प्राणी झूठे नाम और झूठे सत्य को धारण कर लेता है।

रजनी गत भई रबि परकासा, धरम करम घूँ केर बिनासा ।। 

रबि प्रकास तारे गुन खीनाँ, आचार ब्यौंहार सब भये मलीनाँ ।। 

विष के दाधे विष नहीं भावै, जरत जरत सुख सागर पावै ।।

कबीर दास जी कहते हैं की रात्रि व्यतीत हो गई है और सूर्योदय होते होकर सूर्य का प्रकाश हो गया है। अर्थात् अज्ञान की रात्रि बीत गई है और ज्ञान का प्रकाश प्रकट हो गया है। सभी प्रकार के कर्म बंधन नष्ट हो गए हैं और प्राणी के लिए धर्म अर्थात् कोई भी कर्तव्य शेष नहीं बचा है अर्थात् उनका विनाश हो गया है। इस प्रकार जैसे सूर्य के उदय होते ही तारों के गुण समूह नष्ट हो जाते हैं अर्थात दिखाई नहीं देते इस प्रकार आचार और व्यवहार के जो भी कर्तव्य और कर्म बंधन थे वह सब अब फीके पड़ गए हैं और प्राणी को बांधते नहीं है। कबीर दास जी कहते हैं कि विष से दग्ध होने पर अब विष  भाता नहीं है अर्थात् विषपान करने कि अब कोई इच्छा नहीं है।  इस संसार में मोह माया और विषयों के विषय से जलते जलते अब मैंने सुख के सागर को प्राप्त कर लिया है अर्थात् ईश्वर की अनुभूति में मैं निमग्न हो गया हूं।

विशेष :-

रूपकातिशयोक्ति तथा साँगरूपक अलंकारों का प्रयोग करके भ्रमपूर्ण कर्म की निष्फलता परमतत्व की प्राप्ति के पश्चात् आनन्द प्राप्ति की अभिव्यंजना की गयी है। 

।।निरंतर।।

अनिल झूठ दिन धावै आसा

अनिल झूठ दिन धावै आसा, अंध दुरगंध सहै दुख त्रासा ।। 

इक त्रिषावंत दूसरे रबि तपई, दह दिसि ज्वाला चहुँ दिसि जरई ।। 

करि सनमुख जब ज्ञान बिचारी, सनमुखि परिया अगनि मझारी ।। 

गछत गछत तब आगै आवा, बित उनमाँन ढिबुआ इक पावा ।। 

सीतल सरीर तन रह्या समाई, तहाँ छाड़ि कत दाझै जाई ।। 

यूँ मन बारुनि भया हमारा, दाधा दुख कलेस संसारा ।। 

जरत फिरै चौरासी लेखा, सुख कर मूल कितहूँ नहीं देखा।। 

जाके छाड़े भये अनाथा, भूलि परे नहिं पावै पाथा ।। 

अछे अभि अंतरि नियरै दूरी, बिन चीन्या क्यूँ पाइये मूरी।। 

व्याख्या :- 

अनिल झूठ दिन धावै आसा, अंध दुरगंध सहै दुख त्रासा ।। 

इक त्रिषावंत दूसरे रबि तपई, दह दिसि ज्वाला चहुँ दिसि जरई ।। 

कबीर दास जी कहते हैं कि यह वायु दृष्टिविहीन होकर व्यर्थ ही दिन भर झूठी आशा में दौड़ता रहता है और तरह-तरह की दुर्गंध, दुख और त्रास(परेशानी) को सहता रहता है।

एक तो यह स्वयं ही प्यासा है क्योंकि प्यास बुझाने ही यह दौड़ते रहता है ऊपर से सूरज की गर्मी से यह तप जाता है। यह दसों दिशाओं में ज्वाला है यह चारों दिशाओं में जलता रहता है।

करि सनमुख जब ज्ञान बिचारी, सनमुखि परिया अगनि मझारी ।। 

गछत गछत तब आगै आवा, बित उनमाँन ढिबुआ इक पावा ।। 

उसने समझ होकर जब ज्ञान का विचार किया तो वह सामने प्राप्त हुई अग्नि  के मध्य में वह गिर पड़ा। जब वह जाते-जाते आगे आया तब उसे अपने विश्राम के योग्य एक शीतल स्थान प्राप्त हुआ। और वहां वह प्रवेश करके शीतल हो गया।

सीतल सरीर तन रह्या समाई, तहाँ छाड़ि कत दाझै जाई ।। 

यूँ मन बारुनि भया हमारा, दाधा दुख कलेस संसारा ।। 

कबीर दास जी कहते हैं कि उसका शरीर शीतल हो गया है और वह वहां आराम से विश्राम कर रहा है तब उसे स्थान को छोड़कर अब वह जलने के लिए कहां जाएगा। अर्थात कहीं नहीं जाएगा क्योंकि उसे पता है कि सब और मुसीबत ही मुसीबत है। कबीर दास जी कहते हैं कि इसी प्रकार हमारा मन वारुणि अर्थात् मदिरा हो गया है। अर्थात वह अब ईश्वर के आनंद में मगन हो गया है क्योंकि वह पहले संसार के दुख और क्लेश से बहुत ही जल गया है और यरह तरह के  दुख प्राप्त किया है। इसलिए वह अब उसे ओर नहीं जाता ईश्वर में ही मगन रहता है।

जरत फिरै चौरासी लेखा, सुख कर मूल कितहूँ नहीं देखा।। 

जाके छाड़े भये अनाथा, भूलि परे नहिं पावै पाथा ।। 

अछे अभि अंतरि नियरै दूरी, बिन चीन्या क्यूँ पाइये मूरी।। 

प्राणी चौरासी लाख योनियों में जलता रहता है दुख प्राप्त करता रहता है किंतु वह सुख के मूल अर्थात् जिससे सुख प्राप्त होता है उस स्रोत को कहीं भी प्राप्त नहीं करता है। जिस ईश्वर को छोड़कर वह अनाथ हो गया है और फिर इस संसार में आकर उस नाथ तक जाने का रास्ता वह भूल गया है और उस तक  पहुंच नहीं पा रहा है अर्थात् कष्ट भोग रहा है। वे कहते हैं कि वह ईश्वर अपने ही अंतर में विराजमान है वह निकट होते हुए भी दूर भाषित होता है क्योंकि बिना पहचाने, अपने घर में छुपे हुए खजाने को भी हम कैसे पा सकते हैं अर्थात् वह ईश्वर हमारे भीतर ही विद्यमान होकर भी हम उसे नहीं जानते यह आश्चर्य है।

विशेष :-

पवन का मानवीकरण किया गया है। उपमा और दृष्टान्त अलंकारों की योजना है।

पवन प्राण वायु युक्त सूक्ष्म शरीर का प्रतीक माना जाता है। 

द्वारा : एम. के. धुर्वे, सहायक प्राध्यापक, हिंदी