अलख निरंजन लखै न कोई

कबीर ग्रंथावली- डॉ. श्यामसुंदरदास (रमैणी )

।।निरंतर।।

अलख निरंजन लखै न कोई,

अलख निरंजन लखै न कोई, निरभै निराकार है सोई।। 

सुनि असथूल रूप नहिं रेखा, दृष्टि अद्रिष्टि छिप्यौ नहीं देखा ।। 

बरन अबरन कथ्यौ नहीं जाई, सकल अतीत घट रह्यौ समाई ।। 

आदि अंत ताहि नहिं मधे, कथ्यौ न जाई आहि अकथे ।। 

अपरंपार उपजै नहिं बिनसै, जुगति न जाँनियै कथिये कैसे ।। 

जस कथिये तत होत नहीं, जस है तैसा सोइ ।। 

कहत सुनत सुख उपजै, अरु परमारथ होइ ।। ३ ।।

व्याख्या :- 

अलख निरंजन लखै न कोई, निरभै निराकार है सोई।। 

सुनि असथूल रूप नहिं रेखा, दृष्टि अद्रिष्टि छिप्यौ नहीं देखा ।। 

कबीर दास जी कहते हैं कि वह ईश्वर आंखों से दिखाई नहीं देता अर्थात् अलख है निरंजन है उसे ऐसे कोई नहीं देख सकता। वह निर्भय है निराकार है उसका कोई आकार नहीं है।उसे सुना नहीं जा सकता वह स्थूल नहीं है। उसका कोई रूप या रेखा नहीं है । वह दृष्टि और अदृश्य से परे है वह छिपा हुआ है वह देखा नहीं जा सकता। 

बरन अबरन कथ्यौ नहीं जाई, सकल अतीत घट रह्यौ समाई ।। 

आदि अंत ताहि नहिं मधे, कथ्यौ न जाई आहि अकथे ।। 

वर्ण का अर्थ होता है रंग। उसे रंग का या रंग रहित कहा नहीं जा सकता। वह सबसे न्यारा है। वह सभी घटों में सभी अस्तित्वों में समाया हुआ है । उसका न आदि है न अंत है न मध्य है वह कहा ही नहीं जा सकता वह अकथ है।

अपरंपार उपजै नहिं बिनसै, जुगति न जाँनियै कथिये कैसे ।। 

जस कथिये तत होत नहीं, जस है तैसा सोइ ।। 

कहत सुनत सुख उपजै, अरु परमारथ होइ ।। ३ ।।

उसकी कोई सीमा नहीं है उसका कोई पर नहीं पाया जा सकता वह न तो उपजता है न ही उसका विनाश ही होता है। उसे जानने की ऐसी कोई निश्चित युक्ति नहीं है कि जिसे बता दिया जाए कि ऐसा करो और वह मिल जाएगा। उसके लिए जिस प्रकार से कहा जाता है सचमुच में वह वैसा नहीं होता। वह जैसा है वह वैसा ही रहता है। उसके बारे में कहने सुनने से अच्छा लगता है अर्थात् इसीलिए हम कहते रहते हैं। और परमार्थ सिद्ध होता है अर्थात् जो लोग इन बातों को सुनते हैं वे ईश्वर की ओर जाते हैं तो उनका कल्याण होता है।

विशेष :-

(१) निर्गुण ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन किया गया है। इस रमैंणीमें, ‘नेति नेति’ शैली का प्रयोग है। 

(२) इस सृष्टि से परे होते हुए भी परमतत्त्व की व्याप्ति कण-कण में है। 

(३) दूसरी तथा तीसरी पंक्ति में अलंकार है।

जांनसि नहीं कस कथसि अयनों,

जांनसि नहीं कस कथसि अयनों, हम निरगुन तुम्ह सरगुन जानाँ ।। 

मंति करि हींन कवन गुन आँहीं, लालचि लागि आसिरै रहाई।। 

गुँन अरु ग्याँन दोऊ हम हीनों, जैंसी कुछ बुधि बिचार तस कीन्हाँ ।।

 हम मसकीन कछु जुगति न आवै, से तुम्ह दखो तौ पूरि जन पावै।।

 तुम्हरे चरन कँवल मन राता, गुन निरगुन के तुम्ह निज दाता ।। 

जहुवाँ प्रगटि बजावहु जैसा, जस अनभै कथिया तिनि तैसा ।। 

बाजै जंत्र नाद धुनि होई, जे बजावै सो और कोई ।। 

बाजी नाचै कौतिग देखा, जो नचावै सो किनहूँ न पेखा ।। 

आप आप धै जानियें, है पर नाहीं सोइ । । 

कबीर सुपिनै केर धन ज्यूँ, जागत हाथि न होइ । । 4 ।।

शब्दार्थ :-

मसकीन का हिंदी अर्थ · १. गरीब । दीन । बेचारा ।

 व्याख्या :- 

जांनसि नहीं कस कथसि अयनों, हम निरगुन तुम्ह सरगुन जानाँ ।। 

मंति करि हींन कवन गुन आँहीं, लालचि लागि आसिरै रहाई।। 

कबीर दास जी कहते हैं कि मैं नहीं जानता है कि मुझे उसका वर्णन किस तरह से करना चाहिए किस प्रकार से कहना चाहिए। क्योंकि हम निर्गुण और तुम सगुण को जानते हो। अर्थात तुम मेरी बात कैसे समझ सकोगे। तुम माटी से हैं हो और तुम में ऐसा कौन सा गुण है की जिससे तुम उसे ईश्वर को जान सकोगे तुम्हारे भीतर तो संसार की मोह माया का लोग लालच भरा हुआ है। तुम्हें केवल यही दिखाई देता है और तुम इसी में बंधे हुए हो।

गुँन अरु ग्याँन दोऊ हम हीनों, जैंसी कुछ बुधि बिचार तस कीन्हाँ ।।

 हम मसकीन कछु जुगति न आवै, से तुम्ह दखो तौ पूरि जन पावै।।

गुण और ज्ञान दोनों से ही हम हीन हैं। जैसी भी थोड़ी बुद्धि है उससे हमने विचार कर वैसा किया है।

हम तो गुरु और उसके द्वारा दिये जाने वाले ज्ञान दोनों से हीन हैं, जो बुद्धि (ज्ञान), मुझे प्राप्त हुई है उसी के अनुरूप मैंने उस पर विचार किया।

हम मस्कीन अर्थात् हम बहुत अधिक कुछ जानने वाले नहीं है हमें कोई युक्ति नहीं आती है यदि आपकी कृपा हो तो हम आपको आपके उस पूर्ण स्वरूप में जान सकेंगे।

 तुम्हरे चरन कँवल मन राता, गुन निरगुन के तुम्ह निज दाता ।। 

जहुवाँ प्रगटि बजावहु जैसा, जस अनभै कथिया तिनि तैसा ।। 

मेरा मन तो तुम्हारे ही चरण कमलों में रमा हुआ है। गुण और निर्गुण के तुम ही देने वाले हो तुम ही दाता हो।

आगे वह कहते हैं कि जहां पर वह जिस तरह से प्रकट होता है वहां पर वह उस तरह से कार्य करवाता है। जैसा वह निर्भय कहता है वैसा ही लोग करते हैं।

बाजै जंत्र नाद धुनि होई, जे बजावै सो और कोई ।। 

बाजी नाचै कौतिग देखा, जो नचावै सो किनहूँ न पेखा ।। 

आप आप धै जानियें, है पर नाहीं सोइ । । 

कबीर सुपिनै केर धन ज्यूँ, जागत हाथि न होइ । । 4 ।।

यह मनुष्य शरीर रूपी यंत्र जब बजता है अर्थात् क्रियाशील होता है तो इससे तरह-तरह के नाद और ध्वनियांँ उत्पन्न होती हैं किंतु इसको बजाने वाला तो कोई और है अर्थात् इसकी क्रियाशीलता के पीछे वह अनंत तत्व है। कबीर दास जी कहते हैं कि वह बाजीगर जिनको नचा रहा है वह कौतूहल तो सबको दिखता है किंतु जो इन सबको नचा रहा है उसे किसी ने नहीं देखा। उसे कोई भी स्वयं से ही स्वयं ही उसे जानता है वह कोई दूसरा नहीं है। अर्थात वह अपने से भिन्न नहीं है। कबीर दास जी कहते हैं की जैसे स्वप्न में मिला हुआ धन जैन पर अपने हाथ नहीं आता।

विशेष :-

(१) ब्रह्म के विभिन्न रूपों का वर्णन किया गया है। इस रमैंणीकी धुनि तुलसीदास की इन पंक्तियों से मेल खाती है-

जाकी रही भावना जैसी । प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ।।

(२) प्राणी उस परमात्मा को जिस किसी रूप में भी देखता है वह उसे उसी रूप में मिलता है। इस भाव की व्यंजना है।

(३) चरन कवँल – रूपक अलंकार तथा सुपिनै केर धन ज्यूँ में उपमा अलंकार के – प्रयोग द्रष्टव्य।

(४) कबीर ने परमात्मा के सगुण और निर्गुण दोनों रूपों को स्वीकार किया है किन्तु निर्गुण रूप को वास्तविक माना है।

।।निरंतर।।

जिनि यह सुपिनां फुर करि जांनां,

जिनि यह सुपिनां फुर करि जांनां, और सब दुखियादि न आँनाँ ।।

 ग्याँन हीन चेत नहीं सूता, मैं जाया बिष हर भै भूता ।। 

पारधी बान रहै सर साँधै विषम बाँन मारै बिष बाँधै । 

काल अहेड़ी संझ सकारा, सावज ससा सकल संसारा ।।

दावानल अति जरै बिकारा, माया मोह रोकिले जारा।। 

पवन सहाइ लोभ अति भइया, जम चरचा चहुँ दिसि फिर गइया ।। 

जम के चर चहुँ दिसि फिर लागे, हंस पंखेरुवा अब कहाँ जाइबे ।। 

केस गहै कर निस दिन रहई, जब घरि ऐचे तब घरि चहई ।। 

कठिन पासि कछू चलै न उपाई, जम दुवारि सीझे सब जाई ।। 

सोई त्रास सुनि रॉम न गावै, मृगत्रिष्णा झूठी दिन धावै ।। 

मृत काल किनहूँ नहीं देखा, दुःख कौ सुख करि सबही लेखा ।।

सुख करि मूल न चीन्हसि अभागी, चीन्है बिना रहै दुःख लागी ।। 

नीब कीट रस नीब पियारा, यूँ विष कूँ अमृत कहै संसारा ।। 

बिष अंमृत एकै करि साँनाँ, जिनि चीन्ह्याँ तिनहीं सुख मानाँ।। 

अछित राज दिन दिनहि सिराई, अंमृत परिहरि करि विष खाई ।। 

जाँनि अजाँनि जिन्है बिष खावा, परे लहरि पुकारै धावा ।। 

बिष के खाँये का गुन होई, जा बेदन जानें परि सोई ।। 

मुरछि- मुरछि जीव जरिहै आसा, काँजी अलप बहुखीर बिनासा ।। 

तिन सुख कारनि दुख अस मेरू, चौरासी लख लीया फेरू।। 

अलप सुख दुख आहि अनंता, मन मैंगल भूल्यौ मैमंता ।। 

दीपक जोति रहै इक संगा, नैन नेह माँनूँ परै पतंगा ।। 

सुख विश्राम किनहूँ नहीं पावा, परहरि साच झूठ दिन धावा।। 

लालच लागे जनम सिरावा, अंति काल दिन आइ तुरावा ।। 

जब लग है यहु निज तन सोई, तब लग चेति न देखे कोई।। 

जब निज चलि करि किया पयाँनाँ, भयौ अकाज तब फिर पछिताँनाँ ।।

मृग त्रिष्णाँ दिन-दिन ऐसी, अब मोहि कछू न सोहाइ ।। 

अनेक जतन करि टारिये, करम पासि नहीं जाइ । । ६। । 

व्याख्या :- 

जिनि यह सुपिनां फुर करि जांनां, और सब दुखियादि न आँनाँ ।।

ग्याँन हीन चेत नहीं सूता, मैं जाया बिष हर भै भूता ।। 

जिसने यह जगत स्वप्न के होने के समान जान लिया है यह जगत स्वप्न मात्र है उसके पास कोई भी दुख नहीं आते।

संत कबीर दास जी कहते हैं की जिन्होंने इस संसार को स्वप्न के फुरने के समान जान लिया है उन्हें कोई भी दुख जाकर व्याप्त नहीं होते। किंतु जो ज्ञानहीन है वह सोते रहते हैं और चेतते नहीं हैं, किंतु मैं चेत गया हूं और मेरा सांसारिक दुख रूपी विष निवृत्त हो गया है।

पारधी बान रहै सर साँधै विषय बाँन मारै बिष बाँधै । 

काल अहेड़ी संझ सकारा, सावज ससा सकल संसारा ।।

शिकारी ने अपने बाद साथ रखे हैं और विषय के बाद विष में बुझाकर चला देते हैं। जैसे कोई शिकारी अपने बालों से खरगोश रूपी अपने शिकार अथवा इस संसार को दिन-रात अथवा सुबह शाम मारते जा रहा है।

दावानल अति जरै बिकारा, माया मोह रोकिले जारा।। 

पवन सहाइ लोभ अति भइया, जम चरचा चहुँ दिसि फिर गइया ।। 

किसी कारणवश वन में लगने वाली आग को दावानल या वन की अग्नि कहते हैं जब ऐसा होता है तो वन संपदा नष्ट होने लगती है प्राणी पौधे एवं अन्य संसाधन नष्ट होने लगते हैं।

 इस संसार में विषय विकार रूपी दावानल सभी को अत्यधिक जला रही है। संसार में यह माया और मो उसे अग्नि को हवा दे रहे हैं और बढ़ा रहे हैं। उसे अग्नि को और अधिक बढ़ाने में लाभ रूपी वायु उसे भड़का रही है। और चारों ओर चर्चा है कि यह के दूध सब और घूम रहे हैं अर्थात साक्षात विनाश का ही तांडव हो रहा है।

जम के चर चहुँ दिसि फिर लागे, हंस पंखेरुवा अब कहाँ जाइबे ।। 

केस गहै कर निस दिन रहई, जब घरि ऐचे तब घरि चहई ।। 

जब यह के दूध चारों दिशाओं में घूमने लगे हैं तो हे प्राणी रूपी हंस पक्षी! अब तू कहांँ जाएगा अर्थात् तेरे बचने का कोई उपाय नहीं है। इस कल ने प्राणी के बालों को अपने हाथ से पकड़ लिया है अर्थात् सभी प्राणी मजबूर होकर कल के हाथ में पड़े हैं। जब भी उसे छूटना चाहते हैं तो वह और जोर से इन्हें पकड़ लेता है।

कठिन पासि कछू चलै न उपाई, जम दुवारि सीझे सब जाई ।। 

सोई त्रास सुनि रॉम न गावै, मृगत्रिष्णा झूठी दिन धावै ।। 

उसे कल का पास अत्यधिक दृढ़ है उसे छूटने का कोई उपाय नहीं सोचता और इस प्रकार कल अथवा यमराज के द्वार पर जाकर सभी को दुख भोगने ही पड़ते हैं। ऐसा सुनकर भी प्राणी राम के नाम का गुणगान नहीं करता है यह आश्चर्य है। और यह संसार में तरह-तरह की इच्छाओं में उलझ कर और मृगतृष्णा की तरह व्यर्थ ही दिनभर दौड़ता रहता है। अर्थात् व्यर्थ चेष्टा करते रहता है। जिस प्रकार मरुस्थल में दूर से देखने पर ऐसा लगता है कि जहां पर केवल रेत है वहां सूर्य के प्रकाश से चमकने के कारण ऐसा लगता है जैसे जल का कोई सरोवर है। और प्यासा व्यक्ति गर्मी के समय में उसे ओर बड़ी आशा से जाता है कि अब जल मिल गया है और अपनी प्यास बुझाऊंगा। इस प्रकार अज्ञानी लोग इस संसार में सुख प्राप्त करने का प्रयास करते हैं किंतु अंत में उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। और इसी प्रकार वह है सारा दिन व्यर्थ ही दौड़ कर थकता रहता है।

मृत काल किनहूँ नहीं देखा, दुःख कौ सुख करि सबही लेखा ।।

सुख करि मूल न चीन्हसि अभागी, चीन्है बिना रहै दुःख लागी ।। 

कबीर दास जी कहते हैं कि मैं मैं ऐसा कभी नहीं देखा की मृत्यु के समय कोई व्यक्ति दुख को सुख बनाकर सुखी हो गया हो और सब कुछ प्राप्त कर लिया हो। यह मनुष्य बड़ा अभागा है जो सुख के मूल को पहचानता नहीं है, और उसे पहचान अथवा तो अनुभव के बिना इसे हमेशा दुख ही प्राप्त होते हैं यह दुखी रहता है।

नीब कीट रस नीब पियारा, यूँ विष कूँ अमृत कहै संसारा ।। 

बिष अंमृत एकै करि साँनाँ, जिनि चीन्ह्याँ तिनहीं सुख मानाँ।। 

जिस प्रकार नीम के पके हुए फल में उत्पन्न होने वाले कीड़े को वह नीम बहुत प्यारा लगता है प्रिय लगता है।  इस प्रकार इस संसार में ईश्वर से दूर रहने वाले लोग विषरूप विषय वासनाओं को अमृत कहते हैं।

इन संसारियों ने विष और अमृत को एक साथ ही मिला दिया है मिश्रित कर दिया है। किंतु जिन्होंने इन्हें अलग-अलग पहचान कर अमृत का पान कर लिया है अर्थात् ईश्वर का अनुभव कर लिया है, उन्होंने सुख प्राप्त कर लिया है।

अछित राज दिन दिनहि सिराई, अंमृत परिहरि करि विष खाई ।। 

जाँनि अजाँनि जिन्है बिष खावा, परे लहरि पुकारै धावा ।। 

संसार में भटके हुए लोगों को यह संसार किसी अक्षत राज्य की तरह दिखाई देता है जो बहुत विस्तृत और अच्छा है किंतु उन्हें यह नहीं पता कि यह राज्य दिनों दिन नष्ट होता चला जा रहा है। और ये लोग अमृत को त्याग कर विष का ही पान कर रहे हैं। किंतु कबीर दास जी कहते हैं की जानकार या अनजाने में ही जिन्होंने इस विष को खाया है, इसका सेवन किया है, वे संसार समुद्र की बड़ी-बड़ी लहरों में जब भटक जाते हैं, डूबने लगते हैं, तो फिर बचाओ बचाओ करके जोर-जोर से चिल्लाते हैं।

बिष के खाँये का गुन होई, जा बेदन जानें परि सोई ।। 

मुरछि- मुरछि जीव जरिहै आसा, काँजी अलप बहुखीर बिनासा ।। 

यह विषय रूपी विश्व को खाने में भला किस प्रकार का गुण दिखाई देता है, उसे वेदना या दुख में पड़कर प्राणी बदहाल हो जाता है कुम्हला जाता है‌। आशा अथवा विषय वासनाओं की चाह में यह जीव बार-बार मूर्छित होकर जलता रहता है इस जिस प्रकार बहुत सारी खीर में थोड़ी सी कांजी डाल देने से वह कांजी पूरी खीर का विनाश कर देती है, उसमें इस प्रकार यह विषय वासना का थोड़ा सा भी उपभोग प्राणी का विनाश कर डालता है। ( कांजी स्वभाव से खट्टी होती है।)

“कांजी”( स्रोत :- quora.com

) एक प्रकार का लिक्विड अचार या फर्मंटेड सूप है, जो मुख्य रूप से गाजर से बनता है। कुछ लोग इसे मूली, चुकंदर, फूल गोभी इत्यादि से भी बनाते हैं, पर उसमे भी गाजर अवश्य होती है।

यह बहुत ही स्वादिष्ट और पाचक होती है। खाने से पहले कांजी आपकी भूख को बढ़ा देती है। आप इसका उपयोग गर्मी और सर्दी दोनों मौसम में कर सकते है।

तिन सुख कारनि दुख अस मेरू, चौरासी लख लीया फेरू।। 

अलप सुख दुख आहि अनंता, मन मैंगल भूल्यौ मैमंता ।। 

कबीर दास जी कहते हैं कि यह कैसे मूर्खता है कि तृण के समान सुख को प्राप्त करने के लिए सुमेरु के समान पर्वत समान दुख को व्यक्ति आमंत्रित करता है। और 84 लाख योनियों में फिर मारा मारा फिरता रहता है। दुःख भोगता है। सुख तो थोड़ा सा अर्थात् अल्प है जबकि दुख अनंत है। यह मन रूपी हाथी इस विषय वासना के नशे में मदमस्त होकर अथवा नशे में धुत होकर घूमता रहता है इसे अपनी स्थिति का ध्यान नहीं रहता।

दीपक जोति रहै इक संगा, नैन नेह माँनूँ परै पतंगा ।। 

सुख विश्राम किनहूँ नहीं पावा, परहरि साच झूठ दिन धावा।। 

विषय और वासना दीपक और उसकी ज्योति की तरह है साथ-साथ रहते हैं और यह मन नेत्रों के सहारे उसे देखकर उस पर पतंगे की तरह मर मिटता है अर्थात् अपना विनाश कर लेता है। इस प्रकार किसी दीपक से जल करने के बाद किस पतंगे ने विश्राम पाया है अर्थात् किसी ने नहीं पाया। वे कहते हैं कि जो सत्य स्वरूप ईश्वर है उसे त्याग कर इन झूठे विषय वासनाओं के सुख में प्राणी दिन भर दौड़ता रहता है थकता रहता है।

लालच लागे जनम सिरावा, अंति काल दिन आइ तुरावा ।। 

जब लग है यहु निज तन सोई, तब लग चेति न देखे कोई।। 

इस जीव ने लालच में पड़कर सारे जीवन को नष्ट कर दिया है और जब जीवन का अंतिम समय आता है तब इस संसार को छोड़कर जाना ही पड़ता है। वे कहते हैं कि जब तक यह शरीर है तब तक किसी को चेत गए हैं ऐसा मैं नहीं देखता। सब लोग मोहनिद्रा में सोए हुए हैं।

जब निज चलि करि किया पयाँनाँ, भयौ अकाज तब फिर पछिताँनाँ ।।

मृग त्रिष्णाँ दिन-दिन ऐसी, अब मोहि कछू न सोहाइ ।। 

अनेक जतन करि टारिये, करम पासि नहीं जाइ । । ६। । 

जब प्राण निकल जाते हैं तब यहां पर सब कुछ छोड़कर प्रयत्न करना पड़ता है अर्थात् जाना पड़ता है और तब फिर अकारण ही पछतावा हाथ लगता है। यदि आपने ईश्वर का अनुभव जीते जी नहीं किया तो। यह मृगतृष्णा दिन-दिन ऐसी बढ़ती जाती है कि अब मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। कबीर दास जी कहते हैं कि बहुत तरह-तरह के प्रयत्न करके मैंने इस कर्म बंधन रूपी पाश को काटने का प्रयास किया किंतु मुझसे यह काटा नहीं जा सका यह दृढ़ है। 

विशेष :-

(१) प्राणी के जीवन का महत्त्व ईश्वरीय प्रेम की साधना में है, अन्य किसी भी साधना में नहीं, इसी भाव की व्यंजना की गयी है।अलंकार – विष वान, मन मैंगल, नैन पतंगा नीब-संसारा- उदाहरण । – रूपक । विषहर, पारधी, लहरि रूपकातिशयोक्ति । 

द्वारा : एम. के. धुर्वे, सहायक प्राध्यापक, हिंदी